8 July 2024

भूपेन हजारिका: साहित्य से समाज तक अनूठा काम—डोली शाह

भूपेन हजारिका (अमरउजाला से धन्यवाद सहित)

‘असम’ भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित प्रकृति की अदभुत छटाओं के बीच चाय बागानों का मनमोहक सौंदर्य रखने वाला प्रदेश है। इसी प्रदेश के ही तिनसुकिया जिले के सादिया गाँव में एक साधारण परिवार में ८ सितंबर १९२६ को एक नन्हें बालक का जन्म हुआ, जो बाद में भूपेन हजारिका के नाम से विख्यात हुआ। इसमें बचपन से ही प्रतिभा, रचनात्मकता की भरमार, मन में कुछ अलग करने का जज्बा रक्त प्रवाह बनाकर दौड़ता था। परिस्थितियों के संजोग ने उन्हें न केवल उत्तर-पूर्व का, बल्कि पूरे भारत में गहरी छाप दिलाने में कोई कसर न छोड़ी, जिनका नाम आज भी स्वर्ण अक्षरों में लिखा है। वैसे तो भारत में बहुमुखी प्रतिभा वालों की कोई कमी नहीं, लेकिन एक छोटे से राज्य में जन्मे भूपेन हजारिका का अद्भुत कार्य सचमुच आदित्य है, सराहनीय है। उनकी ही तरह उनका नाम भी अपने-आपमें बहुत कुछ कह देता था, जिसका अर्थ है कोयल यानी मतलब मिठास।

१० भाई-बहनों में सबसे बड़े होने के कारण उन्हें न केवल एक बेटा होने का फर्ज निभाना पड़ा, बल्कि भाई बनकर उन्होंने सभी को निर्देशित भी किया, लेकिन उनके अंदर हर वक्त कुछ अलग करने की चाह उन्हें मिट्टी से अम्बर की ऊँचाइयों तक ले गई। वह शुरू से ही पढ़ने-लिखने के साथ अन्य क्षेत्रों में भी भरपूर रुचि रखते थे।गाने-बजाने में इनकी रुचि देख शिक्षक व्यंग्य कर कह भी देते-पढ़ाई-लिखाई छोड़ दो और गाते रहो!

परिवार में लाख परेशानियों के बाद भी पिता ने उन्हें प्रारंभिक शिक्षा गुवाहाटी के धुबरी जिले में सोनराम हाईस्कूल से करवाई, उसके बाद अच्छे अंकों ने उन्हें गुवाहाटी कॉटन कॉलेज में दाखिला दिला दिया और १९४२ में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। फिर बी.ए. करके कोलंबिया विश्वविद्यालय (न्यूयॉर्क) से पीएच.-डी. की पढ़ाई की। उन्होंने कुछ दिनों तक ऑल इंडिया रेडियो में जनसंचार के माध्यम से बड़ी जनसंख्या तक सूचनाओं का आदान-प्रदान किया, जिससे उनके बोलने की प्रक्रिया का विकास होता गया, उनका आत्मविश्वास बढ़ता गया। अपनी जीविका के लिए वकालत की पढ़ाई भी पूरी कर ली। इसी दौरान उनकी मुलाकात महान शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खान से हुई। उनकी ध्वनि से वह बहुत प्रभावित हुए, मानो ‘सोने पर सुहागा’ हो गया। तभी से उन्होंने शास्त्रीय गीत-संगीत सीखना भी शुरू किया। बिस्मिल्लाह खान उनकी झरने जैसी मुलायम, मीठी ध्वनि, आवाज की मधुरता और प्रतिभा को देख उन्हें अक्सर संगीत की ओर अग्रसर करते रहे।

भूपेन हजारिका ने सबसे पहला गीत मात्र १० साल की उम्र में ही लिखा, जिससे उनकी माँ शांति बहुत प्रभावित हुई और इस क्षेत्र में उनको बढ़ावा दिया। यही कारण है कि, उन्हें संगीत की घुट्टी देने वाली भी कहा जाता है।

इसके बाद बाल कलाकार का किरदार निभाने कें साथ ही फिल्म ‘गज गामिनी’ में इन्होंने संगीत दिया। इसी दौरान कोलंबिया विवि में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भूपेन हजारिका ने एक गीत गाया, जिसमें एक तरफ उनकी मुलाकात पाल रॉबिंसन से हुई, जो बहुत प्रभावित हुए। दूसरी तरफ प्रियंवदा पटेल ने उनके गीत पर नृत्य किया। इस पहली मुलाकात के बाद दोनों के बीच रिश्ता बढ़ता गया और बात शादी तक पहुँच गई, पर घर की आर्थिक तंगी, भाइयों की जिम्मेदारी, परिवार का बोझ और बड़े घर की प्रियवंदा के बीच वह उलझ से गए। इसी दौरान उन्हें कोलकाता में एक बांग्ला फिल्म में संगीत देने का सुअवसर मिला, जिससे उनको खुशी तो हुई, लेकिन वर्षों से नयी पीढ़ी को खुद को ‘ग्राहक उत्पाद’ न बनने की सीख देने वाले ने परिस्थितियों से मजबूर होकर पहली बार अपनी कला का सौदा किया, जिससे उनके ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।

फिर उन्होंने अपनी ही जिंदगी पर एक गीत ‘ऐरा वाता सुर’ बनाया, जिसमें प्रियंवदा ने भी उन्हें आगे बढ़ाने का भरसक प्रयास किया। कुछ वक्त पश्चात ही ‘शकुंतला प्रतिध्वनि’ जैसी पुरस्कृत फिल्मों ने श्री हजारिका की जिंदगी बदल दी। उन्हें राष्ट्रपति पदक से नवाजा गया। फिर बांग्लादेश की कई फिल्मों के लिए भी उन्हें संगीत तैयार करने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिससे अंतरराष्ट्रीय जगत पर भी उनकी छाप बन गई, पर काम के सिलसिले में इनके कोलकाता रहने से प्रियंवदा से रिश्ते में दूरियाँ बढ़ती गई। जब भी प्रियवंदा कोलकाता आती, उनका रिश्ता अक्सर कुछ बदला हुआ दिखता। दोनों के बीच ना वह प्यार दिखता, ना रिश्ते में गर्माहट, बचा था तो दोनों में सिर्फ एक शब्द ‘फर्ज’ का। बढ़ते फासलों को देख प्रियंवदा एक शाम कहने लगी “अब साथ संभव नहीं! दम घुटता है मेरा।”, यह सुनते ही भूपेन हजारिका के मन पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा। मन रेगिस्तान-सा उमड़ कर रह गया।फिर भी उन्होंने ये वादा किया कि कोई रिश्ता हमारे बीच हो या न हो, लेकिन जिंदगी में हम अच्छे दोस्त जरूर रहेंगे और १९६३ में इन्होंने जिंदगी की खुशियों को अलविदा कर दिया। ट्रेन की चीख के साथ ही भूपेन का दिल भी कराह कर रह गया। अब वह बिल्कुल अकेले पड़ गए तो मन में तूफान और शराब ही एकमात्र सहारा बचा। घर में सम्मान की भरमार तो लग गई, लेकिन अकेलापन अब उन्हें काटने को दौड़ता। तब इनकी मुलाकात हिंदी फिल्म जगत की मशहूर अभिनेत्री कल्पना से हुई तो अकेलेपन से जूझते भूपेन हजारिका के मन को एक सहारा भी मिल गया। कल्पना कहाँ २१ साल की और हजारिका ४५ साल के होने के बावजूद भी दोनों करीब आते गए। ठीक अमृता प्रीतम और इमरोज़ की तरह! कल्पना उनकी पहली पत्नी प्रियवंदा का सब कुछ जानते हुए भी उन्हें अपना मान साथ रहने के लिए कलकत्ता तक आई। उसने पत्नी के हर धर्म को निभाया, जिसे हजारिका की जिंदगी में मानो खुशियों का सवेरा आ गया। जिंदगी की गाड़ी चलते-चलते अचानक दौड़ पड़ी।

एक तरफ जहाँ कल्पना लाजमी ने उनके कार्यों में साथ दिया, वहीं कल्पना को और आगे बढ़ाने के लिए अनेक फिल्म बनाकर उसका साथ दिया। लोहित किनारे, रुदाली, दमन, चिंगारी आदि जैसी अनेक फिल्मों से दोनों और भी करीब आते गए।
हालातों से लड़ते हुए उन्होंने किसी तरह अपना गुजर-बसर किया। उन्होंने अपनी जन्मस्थली ब्रह्मपुत्र को लेकर ही उसकी लोक परंपराएं, समसामयिक असमिया में लंबे वर्ष वक तक लिखते रहे। उन्होंने १ हजार से भी अधिक लघु कथाएं, यात्रा वृतांत, बच्चों की कविताएं भी लिखी। अपने लेखन द्वारा ब्रह्मपुत्र के आँचल में वो खुद को पूरी तरह समर्पित कर चुके थे। उन्होंने ही गंगा की बहती धाराओं को देख अपने भावों को कुछ इस तरह प्रस्तुत किया:

“विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार, निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यूँ ?]
ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम
गंगा तुम, ओ गंगा तुम
गंगा… बहती हो क्यूँ ?”

इसी गाने को उन्होंने बांग्ला तथा हिंदी दोनों भाषाओं में भी अपनी आवाज़-ध्वनि दी। इतना ही नहीं, उन्होंने अनेक गीत गए तो ‘दरमियां’ जैसी अनेक फिल्मों में संगीत देकर चाय बागानों में काम करने वाली औरतों के जीवन के जीवंत भावों को पेश किया। इसमें:

“एक कलि दो पत्तियाँ
नाज़ुक नाज़ुक उँगलियाँ
तोड़ रही हैं कौन ये
एक कलि दो पत्तियाँ
रतनपुर बागीचे में

खुल के खिलखिलाती
सावन बरसाती
हँस रही हैं कौन ये
मोगरे जगाती, मोगरे जगाती
एक कलि दो पत्तियाँ…”

इसके कुछ वक्त पश्चात उन्हें सपनों के शहर मुम्बई जाने का सौभाग्य मिला। फिल्म जगत की चकाचौंध दुनिया में उनकी मुलाकात हेमंत कुमार से हुई। उन्हें फिल्म जगत में नए-नए लोगों से पहचान कराने के बाद जन-जन के दिलों तक पहुँचने में तनिक भी विलंब नहीं हुआ। हर आवाज़ में सिर्फ इनका ही गीत सुनने को मिलता। उनका हर गीत मानो दर्शकों के निजी जीवन को टटोलते हुए निर्मित किया जाता था।

“दिल हूँ हूँ करे, घबराए
घन धम धम करे, गरजाए
एक बूँद कभी पानी की
मोरे अँखियों से बरसाए

तेरी झोली डारूँ, सब सूखी पात जो आए
तेरा छुआ लगे, मेरी सूखी डाल हरियाए
दिल हूँ हूँ करे, घबराए

जिस तन को छूआ तूने उस तन को छुपाऊँ
जिस मन को लागे नैना, वो किसको दिखाऊँ
ओ मोरी चन्द्रमा, तेरी चाँदनी अँग जलाए
ऊँची तोरी अटारी, मैं ने पँख लिए कटवाए
दिल हूँ हूँ करे, घबराए

इस गीत ने इन दोनों को सफलता की ऊँचाइयों पर पहुँचाया, वहीं दर्शकों की आँखें नम कर दी ।

गुलज़ार साहब ने एक बार भूपेन का परिचय देते हुए कहा था-“उनका परिचय करवाना बहुत ही मुश्किल है, इनमें कूट-कूट कर प्रतिभा भरी है, जो अपने-आपमें बड़ा ही विद्वता का परिचय देता है। गीतकार, संगीतकार, कविताएं, पत्रकारिता, फिल्म निर्देशक पाठक, गायक और लेखक क्या क्या कहूं, सब कम है। असम की संस्कृति के अभिनेता दुनियाभर में पहचान दिलाने वाले एक इकलौते यही कलाकार थे।”

यही नहीं, आज भी विश्व में लोग असम को मुख्यत: भूपेन हजारिका के नाम से ही जानते है। असम का नाम आते ही पहले भूपेन हजारिका का नाम आ जाता है। वह १९९३ में असम साहित्य सभा के सदस्य बन चुके थे। लता जी की बातों से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी पहली फिल्म का गाना उनसे ही गंवाना चाहा और एच.एम.वी. में जारी भी करवाया।

असम में बांग्ला विरोधी आंदोलन के दौरान जीवन के हर उतार-चढ़ावों को देखते हुए वह उत्तर-पूर्व में बसे और असम वासियों के भाल बनकर खड़े रहे। उन्होंने पूरे असम की साझी संस्कृति का ऐसा चित्रण किया, जो बहुत ही कठिन है। उनको फ़िल्मी गीतों के लिए जहां पद्मश्री से सम्मानित किया गया, वहीं ‘रुदाली’ फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीत के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा गया। जनजातिय कल्याण और सिनेमा के माध्यम से संस्कृति के उत्थान में उनके योगदान के लिए अरुणाचल प्रदेश सरकार से स्वर्ण पदक भी मिला और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया। फिर दादा साहब फालके पुरस्कार, पद्मभूषण सहित २००९ में ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने जीवन काल में जो साहित्य राशि दी, उसने न केवल असम, बल्कि पूरे विश्व में चेतनाशील व्यक्तियों के हृदय को उद्वेलित किया है। उनका साहित्य गीता की वाणी की तरह प्रेरणादायक है। थके-मांदे लोगों को भी परेशानियों से लड़ने की भरपूर प्रेरणा देता है। उनका जीवन कठिन परिस्थितियों के बाद भी अपनी मंजिल पर अटल रहने की प्रेरणा देता है। झरने की तरह मुलायम उनके मीठे स्वर और गीत लिखने की शैली सचमुच करोड़ों वर्षों तक लोगों के दिलों में जिंदा रहेंगे। ५ नवंबर २०११ को जीवन का सफर समाप्त कर परमात्मा के साथ उनके एकाकार होने की खबर ने पूरे उत्तर भारत को शोकाकुल बना दिया। पूरे विश्व में उन्हें जहां ‘हीरो ऑफ असम’ के नाम से नवाजा गया, वहीं उनकी जन्मस्थली सदियां जिले को जोड़ने वाला भारत का एक सबसे लंबा पुल बनाने की घोषणा की गई, जो ब्रह्मपुत्र की सहायक लोहित नदी पर है। सचमुच वह अपने कार्यों से हमारे दिल में हमेशा जिंदा रहेंगे।
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डोली शाह
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*’ਲਿਖਾਰੀ’ ਵਿਚ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਹੋਣ ਵਾਲੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਹੀ ਰਚਨਾਵਾਂ ਵਿਚ ਪ੍ਰਗਟਾਏ ਵਿਚਾਰਾਂ ਨਾਲ ‘ਲਿਖਾਰੀ’ ਦਾ ਸਹਿਮਤ ਹੋਣਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਨਹੀਂ। ਹਰ ਲਿਖਤ ਵਿਚ ਪ੍ਰਗਟਾਏ ਵਿਚਾਰਾਂ ਦਾ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰ ਕੇਵਲ ‘ਰਚਨਾ’ ਦਾ ਕਰਤਾ ਹੋਵੇਗਾ।
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