आज पूरा देश 26 जनवरी का त्यौहार मना रहा था। विद्यालय के निमंत्रण में अधिकांश बच्चे अपने बड़े जनों के साथ ही आए थे ।मैं भी राजन के साथ ही विद्यालय पहुंचा। पूरा विद्यालय गेरूवा वस्त्र पहने, पंक्तिबद्ध स्थिति में, मानो देखते ही बन रहा था। हर वर्ष की तरह ही विद्यालय प्रांगण की ओर से ध्वजारोहण का शुभारंभ किया गया। नन्हे बच्चों के द्वारा राष्ट्रीय ध्वज की सलामी, वीरों की गाथाएं और आने वाले भविष्य की उज्जवल कामना करते हुए, दो टुक मुख्य अतिथि एयर चीफ मार्शल द्वारा आषिर वचनों के तुरंत बाद ही रंगारंग संस्कृति प्रोग्राम का आयोजन किया गया। हर आयोजनों को देख ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे स्वयं राम स-परिवार विद्यालय के प्रांगण में प्रस्तुत हो गए हैं। कभी जनक की बेटी माता सीता के साथ, तो कभी भ्राता लक्ष्मण के साथ, कुछ नहीं तो बच्चे स्वयं ही आदरणीय श्री राम बन कर स्वयं ही पधार जाते। सचमुच ऐसा अदभुत दृश्य नजरों से ओझल ही नहीं हो रहा था। इतने में मैंने पिपाशा की इच्छा लिए दूसरी तरफ नजर दौडाई ही थी कि मेरी नज़र किनारे खड़ी एक बच्ची पर पड़ी। नजरें मिलते ही उसने तुरंत ही सिर झुका लिया लेकिन उसका उदास चेहरा देखकर मैं खुद को रोक ना सका। मैंने पास जाकर पूछा — “क्या नाम है तुम्हारा?” ( बड़े ही मंद स्वर में कहा ) “परी।” उसने सिर हिलाकर इशारा करते हुए कहा: “कुछ नहीं, ऐसे ही।” दो पल वह मौन सी हो गई, फिर बोली: “प्रधानाध्यापक सर ने मुझे पंक्ती में रहने से मना कर दिया।” मुझे उस के पिता की अस्वस्थता और परिवार की दयनीय स्थिति के बारे में जानने की इच्छा हुइ परन्तु उसकी स्थिति देख अपनी भावनाओं को संभालते हुए मैंने नाटक की तरफ इशारा करते हुए कहा: “उधर देखो।” “अंकल सिर्फ गेरुआ कपड़े पहनने से और कुछ लाइन श्री राम के सीख लेने से क्या वह राम बन जाएंगे?” उसके मन की उग्रता को देख मैं ने कहा — “नहीं बेटा कपड़ा तो सिर्फ तन ढकने का एक आवरण है, इंसानों की पहचान तो उसके व्यवहार अोर दूसरों के प्रति सम्मान भावनाओं से होती है।” मैं ने फौरन ही प्रधानाचार्य जी से अनुरोध किया और परी को अपनी स्वयं रचित कविता पाठ करने का अवसर भी दिलाया। परी ने बड़े ही सुंदर ढंग से कविता पाठ किया। कविता का समापन होते ही पूरा प्रांगण तालियों की गूंज से कुछ इस तरह गुंजा जैसे सिर्फ परी ने ही सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया हो। एयर मार्शल सर तो परी की मासूमियत एवं ओज पूर्ण कविता सुनने उपरन्त स्वयं उसके पास जाकर बोले— “शाबाश बेटा, तुम्हारी कविता ने दिल के रोंगटे खड़े कर दिए! ऐसा प्रतीत हुआ मानो देश की हर एक लड़की का प्रतिनिधित्व करते हुए साक्षात राम से तुम हक और सम्मान की मांग कर रही हो। क्या यह कविता तुम्हारी स्वयं रचित है?” ” जी सर। इस कविता के एक-एक शब्द मेरी अंतरात्मा की आवाज है, जिसे मैं इस छोटी सी उम्र में अनुभव करती हूं। आज हम 76वां गणतंत्र दिवस का त्यौहार मना रहे हैं, लेकिन हमारे देश में एक नारी की यही स्थिति है। देश कहने के लिए आजाद तो हुआ लेकिन एक नारी की आजादी हर उम्र में किसी न किसी की गुलाम बनकर रह गई। बेटी पिता की आड़ में, पत्नी पति की आड़ में और मां बेटे की आड़ में.. जो इन सब से बच निकला वह गरीबों की आड़ में….” इतना कह उसका गला रूद्ध सा हो गया। कुछ पल थम कर बोली: “—महोदय, आज मेरी ही स्थिति गरीबी की जंजीरों में कुछ इस तरह जकड़ी हुई है कि मैं 10 दिनों के रिहरसल के बाअद भी प्रतियोगिता में शामिल होने में सक्षम नहीं थी। आज इस अंकल की वजह से ही मैं अपनी कविता आप लोगों तक प्रस्तुत कर पाई।— तो मेरे लिए तो यह अंकल ही राम हैं।”—— “हम, आप पूरी दुनिया को राम मय बनाना चाहते हैं तो हर मनुष्य के अंदर दया, सेवा, परोपकार की भावना, परिस्थितियों को समझने का अनुभव पैदा करना होगा। तभी हम आदरणीय श्री राम बन पाएंगे।” बच्ची ने मेरा चरण स्पर्श किया। पुनः पूरा प्रांगण तालिया की गड़गड़ाहट से गूंज उठा लेकिन प्रधानाध्यापक के चेहरे पर पछतावा की लकीरें देख, परी खुद को रोक न सकी और उनके सामने जाकर बोली — “सर, मुझे माफ कर दीजिएगा मेरी वजह से आपको ठेस पहुंचा।” “नहीं बेटा, कोई बात नहीं।” “सर मुझे भी बहुत बुरा लगा था जब आपने मेरे कपड़ों के लिए मुझे पंक्ति में शामिल नहीं होने दिया। आप ही अक्सर सिखाते थे कि इंसानों की ऊपरी आवरण से कोई फर्क नहीं पड़ता। इंसान का मन, मस्तिष्क, दिल -दिमाग ही अच्छा होना चाहिए। तो सिर्फ आज मात्र वस्त्र के लिए मुझे इतने बड़े सम्मान से वंचित किया जा रहा था।” इतने में मैं ने कहा—“अरे परी बेटा! छोड़ो यह सब! इतने बड़े सम्मान के लिए सर का चरण स्पर्श करो, तुम्हारे गुरु है वह!” |
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