महिलाओं की भागीदारी को ठंडी बस्ते में डालकर पुरुषों की भागीदारी पर लक्ष्मण रेखा आखिर क्यों नहीं !! यह सवाल हम सभी के आगे प्रश्न चिन्ह बना हुआ है। वैसे तो भिन्नता भारत के कतरे -कतरे में रक्त की तरह प्रवाह होता है। यहां न केवल प्राकृतिक भिन्नता , बल्कि धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक भिन्नताएं भी भरपूर मात्रा में पाई जाती हैं। वहीं दूसरी ओर भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य कहकर हर जाति- धर्म के लोगों को समान अधिकार दिया जाता है । भारत विभिन्नताओं की लंबी-लंबी कतारें पढ़ने वाला , हर क्षेत्र में समानता का डंका पीटने वाला , नर – नारी की समानता की बात आते ही उनके पैर डगमगाने लगते हैं , लड़खड़ाने लगते हैं! ऐसा प्रतीत होता है कि वह महिलाओं को आगे बढ़ाने की बात कहते तो है लेकिन बारी आने पर उसे अपने से एक कदम पीछे ही देखना ज्यादा पसंद करते हैं। आज भी हमारे समाज में उसे देवी कहकर पूजा जरूर जाता है लेकिन आज आजादी के 76साल बाद भी समान अधिकारों की बात आने पर एक नारी को खिलाने, संभालने तक में ही समेट दिया जाता है। बाबा आम्बेडकर जी की लिखे गये भारतीय संविधान में भी समानता, संप्रभुता , भाई-भाई लिखा तो गया लेकिन वह सिर्फ कागजों तक ही रहा। जो अधिकार महिलाओं को आजादी की संध्या से मिलनी चाहिए थे वह आज तक कहीं गुम हैं । मैं यह नहीं कहती कि समाज में महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए कोशिशें नहीं की गई, 75 सालों में 7500हजार कानून बने होंगे। महिलाएं आगे भी बढ़ी हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं लेकिन हम में से ही कुछ बुद्धिजीवियों के कारण उन्हें आज भी उनके विकास में समानता का अधिकार नहीं मिल पाया है । हाल की ही हम देखे तो कभी बेटी पढ़ाओ- आगे बढ़ाओ ,उज्ज्वला योजना, बाल कल्याण योजना और न जाने कितनी ही योजनाएं बनाई गई, लेकिन सही समानता का अधिकार मिलने में न जाने और कितने वर्ष इंतजार करना पड़ेगा । भारत आज भी एक विकासशील देश है और इसे विकसित बनाने के लिए हमें पिछड़े वर्ग के लोगों को , महिलाओं को, आने वाली युवा पीढ़ी को, समानता के सूत्र में बांधना होगा। तभी हम एक नए भारत की कल्पना कर सकते हैं। उसके लिए एक बहुत महत्वपूर्ण पहल आज से करीब तीस साल पहले हुई जो महिला बिल के रूप में हमारे सामने आई थी। अथक प्रयासों के बाद भी दुर्भाग्यवश आज भी वह मात्र कागजों तक ही सिमटा रह गया है। अखबारों की हेडलाइंस , सुर्खियां बनकर लम्बे – लम्बे भाषणों के बाद भी नतीजा अभी भी हमारे सामने सिर्फ कागजों तक ही है और न जाने यह कब तक रहेगा। पहली बार 12 सितंबर 1996 को एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने महिलाओं के अधिकारों को लेकर थोड़ी सजगता जरूर दिखाई थी, लेकिन उनकी कोशिशें सिर्फ कोशिशों तक ही रह गईं । उसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने और फिर अटल बिहारी वाजपई जी के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भी उन्होंने महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने के लिए भरपूर प्रयास किया और उस बिल को पास करने के लिए बहुत ही कठोर परिश्रम किए, लेकिन कुछ बुद्धिजीवी नेताओं के किंतु, परंतु, अपितु के चक्रव्यूह में फंस कर इस बिल पर मिट्टी की परतें डाल दी गई। लेकिन हां हम रानी लक्ष्मीबाई , सरोजिनी नायडू ,कल्पना चावला जैसी हस्तियों के देश में रहने वाले उनके बलिदान, उन्हें कंधा से कंधा मिलाकर लड़ते देखने वाली महिला थे तो हम आज पीछे हटकर अपना सम्मान कैसे गंवा सकते थे। यही कारण है कि आज हम महिलाओं ने अपना रुतबा दिखाया और अंतरिक्ष में जाने वाली पहली महिला कल्पना चावला, हवा में गोली दागने से लेकर ओलंपिक खेलों में हर जगह अपने साथ पूरे देश का नाम रोशन करने वाली हैं लेकिन फिर भी आज उसे एक छोटा सा अधिकार दिलाने में लोगों की स्याही कम पड़ जा रही है, खत्म हो जा रही है!! कुछ तो जातिगत जनसंख्या की वास्तविक संख्या की ना उपलब्धता बता कर, तो कभी उसके प्रारूप अथवा कुछ अन्य योजना बनाकर उसे धूंधला कर दिया जाता रहा है । दरअसल 1931 के बाद आज तक हमारे देश में कभी जातिगत जनगणना हो ही नहीं पाई तो आखिर जनसंख्या का पता कैसे चले!! लेकिन हां,जिंदगी की हर गाड़ी तो आगे निकल ही गई,मगर महिलाओं के विकास पर बना इस महिला बिल पर मैल की परत चढ़ी की चढ़ी ही रह गई । ना हुआ बांस ,न बजी बांसुरी। आज तक न जातिगत जनसंख्या की वास्तविक संख्या प्राप्त हुई और ना ही बिल कागजों से निकलकर सामने आया। हालांकि यूनियन जिला इनफॉरमेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार ओबीसी तथा निचले जाति के लोगों की कुल जनसंख्या लगभग 43% के बताई गई, वही 1980 में मंडल आयोग ने जातिगत जनसंख्या की जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गई उसमें ओबीसी की आबादी लगभग 53% आँकी गई। उपर्युक्त कारणों से कर्म के आधार बताते हुए यह बिल वही रह गया। इसके बावजूद महिलाओं ने सही स्थान तक लाने के लिए हर संभव प्रयास किया।हजारों महिलाओं के साथ जानी मानी प्रमिला दंडवते जी ने अपने इस बिल को पास कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। वहीं गीता मुखर्जी समिति ने भी प्रयास में कोई कसर नहीं छोड़ी। 1996 में रिपोर्ट पेश करते हुए उन्होंने सिफारिश की कि देश के भरपूर विकास के लिए पीछडे वर्ग की महिलाओं का कानून पास किया जाए मगर आज भी हम देश के सदनों के आंकड़ों को देख हम स्थिति भली- भांति समझ सकते हैं। आज भी लोकसभा में महिलाओं की संख्या मात्र 15% यानी 543 में मात्र 78 और राज्यसभा में मात्र 13 प्रतिशत यानी मात्र 25 ही है। इन आंकड़ों से हम इतना अनुमान तो अवश्य लगा सकते हैं कि देवी , मां , पत्नी , बेटी सब कहा तो जरूर जाता है लेकिन जब अधिकारों की बात आती है तो ये पुरुष प्रधान समाज अपने को ऊपर रहने की होड़ में उमड़ जाते है। हाल के वर्षों में भारत ने आर्थिक, तकनीकी, पर्यावरणीय तरक्की में कोई कसर नहीं छोड़ी ।यहां तक कि राजनीति तथा रणनीति पर भी खुद को बखूबी मजबूत किया है,लेकिन सामाजिक क्षेत्र में आज भी भारत वर्ष में भरपूर विकास संभव नहीं हो पाया है ।हमारे देश की महिलाओं को खासकर पिछड़ी जाति के लोगों को समानता का अधिकार मिलना ही चाहिए। 30 सालों के बाद भी यही कारण है कि कानून बनाने की प्रक्रिया में महिलाओं की इमोशंस , मेंटालिटी को कोई महत्व नहीं दिया जाता है । हजारों वर्षों से हर जगह पुरुष को ऊपर रखकर उसकी गरिमा को बढ़ाया जाता है लेकिन हमेशा महिलाओं को दरकिनार कर दिया जाता है। हम एक जाति को छोड़कर एक मध्यम वर्गीय परिवार को ही देखें तो पता चलेगा कि औरतें सुबह से शाम तक पूरा दिन घर का सारा काम करती हैं। पुरुष घर जाकर उसे “यू आर दा बॉस” भी बोल देगा , लेकिन फिर भी उसे परिवार की तरक्की के लिए कोई डिसीजन लेना होगा तो उसे लेने के बाद जानकारी दी जाती है। निम्न वर्ग की महिलाओं की दशा तो हम मध्यम वर्ग की कल्पनाओं से ही भरपूर रूप में कर सकते हैं। सबको बदलने का एक भरपूर प्रयास कुछ हद तक सही करने के लिए नए संविधान सदन में महिला बिल को ही नारी शक्ति वंदन अधिनियम के रूप में 19सितंमबर 2023 को पास किया गया उसे ‘ऐतिहासिक दिन’ भी घोषित किया गया। उसमें दोनों सदन लोकसभा और राज्यसभा में तथा दिल्ली की विधानसभा में 33% महिलाओं को आरक्षण की बात कही गई है, हालांकि भारत के कुछ प्रदेशों में कई वर्षों से 50% महिलाओं का आरक्षण दिया भी जा चुका है जिनमें केरल, महाराष्ट्र ,आंध्र प्रदेश ,छत्तीसगढ़ बिहार जैसे राज्य शामिल हैं। लेकिन आज भी भारत के दोनों सदनों में इसे अमल में लाने के लिए लंबे इंतजार का वक्त मांगा जा रहा है। आखिर कब तक और इंतजार!! मानती हूं एक बिल को बनाना, पास करना, फिर उसे लागू करना ,एक बहुत लंबी प्रक्रिया है , लेकिन चूंकि यह बिल बना तो बहुत पहले था पर यहां तक लाने के लिए कितनों का खून- पसीना बहा होगा और अब जब वह यहां तक पहुंच ही गया है तो यथासंभव प्रयासों के साथ पिछड़ी बहन , मां को उनकी काबिलियत के अनुसार उन्हें उनका सम्मान दिलाया जाए। इसे किंतु ,परंतु , अपितु के चक्रव्यूह से उठाकर सही स्थान तक पहुंचाया जाए । हम बुद्धिजीवियों का यह परम कर्तव्य बनता है कि बहुत हो गया! अब महिलाओं को समानता के अधिकार में बांधा जाए। सही मायने में तो महिलाओं को 50% आरक्षण मिलना चाहिए लेकिन फिर भी आज जो 33% के आरक्षण का बिल पास हो चुका है ,उसे विलंबता के आईने से और धुंधला न होने दें , क्योंकि कहा भी जाता है – जितने मुंह, उतनी बात। हमारी पिछड़ी जाति की बहन- बेटियों की उनकी काबिलियत अनुसार उनहे सदनों में सम्मान देकर उनकी मर्यादा बढ़ाई जाए। इस बिल को यथासंभव अमल में लाया जाए और देश को समानता के अधिकार का सही प्रारूप दिया जाए। भारतीय संसद में बढ़ती हुई महिलाओं की भागीदारी का आजाद भारत में महिला सशक्तिकरण का बेजोड़ कानून माना गया है । इस बिल के पास होते ही महिलाओं के चेहरे पर जो चमक और नया जोश आया था उसे विलंब की आंधी से न समाप्त कर जल्दी लागू करने का यथासंभव प्रयास किया जाए – |
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