9 December 2024

विश्व की सांस्कृतिक धरोहर– मोइदम—-डोली शाह

भारत का उत्तर- पूर्व इलाका —-उत्तर -पूर्व का नाम लेते ही असम का नाम अनायास ही दर्पण बन कर सामने आ जाता है। दूर-दूर तक फैले वो चाय के बागान जहां आंखों को तृप्त करती है, वही ब्रह्मपुत्र की कल- कल करती ध्वनियां कर्णों  को मधुरता के रस में बांध देती है। इतना ही नहीं, वास्तुकला और स्थापत्य कला की दृष्टि से तो असम शुरू से ही बहुत  समृद्ध रहा है, जिसमें एक छोटा सा उदाहरण हम मोइदम  को ही देख लें।

लंबी वर्षों तक अपना आधिपत्य रखने वाली अहोम साम्राज्य दक्षिणी चीन या वर्मा से आई एक ऐसी जनजाति थी ,जो पूरी प्रदेश पर अपना गहरा  छाप छोड़ गयी। इनके प्रतिरोध के कारण ही असम सदा मुगल आक्रमणों से  बचा रहा , सचमुच, इन आदिवासियों  के कार्यों की  हम  जितनी चर्चा करे उतनी कम है। इन आदिवासियों ने  ही अपनी जनजाति के नाम पर इस प्रदेश का नाम “असोम” रखा जो बाद में अंग्रेजीकरण होते -होते असम के नाम से विख्यात हुआ।

1228 में आई इस अहोम साम्राज्य की स्थापना का श्रेय चाओलुंग  सुकाफा को दिया जाता है। उनके असाधारण व्यक्तित्व के लिए ही उन्हें चाओलुंग  की उपाधि दी गई है। यह शुरू से ही बेगारी प्रथा पर निर्भर रहते, जिससे चावल की खेती और उस क्षेत्र में बुनियादी ढांचा तकनीक को उन्होंने भरपूर बढ़ावा दिया। यह आदिवासी मुख्य रूप से असम के चराई देव जिले के एक बड़े हिस्से में वास किये। इसके अलावा आसपास की कुछ इलाकों में भी उनका अपना पूरा आधिपत्य रहा। चे-राय -दोई नाम का अर्थ ही है “–पहाड़ियों का चमकता शहर।”

चराई देव जो असम के शिवसागर शहर से मात्र तीस किलोमीटर दूरी पर स्थित है। हवाई यात्रा की दृष्टि से देखा जाए तो 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जोरहाट इसके सबसे नजदीकी हवाई अड्डा है, वही रेल द्वारा मात्र 105 किलोमीटर की दूरी ही पहुंचने तक तय करनी पड़ती है।

करीब 600 वर्ष  तक रहने वाले इन आदिवासियों की मृत्यु के बाद की जाने वाली प्रथाओं का एक विशाल संग्रह मोइदम के नाम से प्रसिद्ध है। जो मैदान है, जो सत्ता रूढ़ अहोम  राजाओं  के  राजघराने के सदस्यों की दफन टीले के रूप में जाने जाते हैं।

यह एक अर्ध- गोलाकार मिट्टी के टीले हैं जो मृतक की स्थिति के आधार पर आकर में भिन्न होते हैं। यह संरचनाएं अहोम साम्राज्य की कलात्मक और इंजीनियरिंग क्षमताओं को भी दर्शाता है। मोइदम इनकी आस्था, समृद्ध, सभ्यगात विरासत ,स्थापत्य कला, वास्तुकला और गहरी आध्यात्मिक मान्यताओं  का एक  बहुत सुंदर प्रतीक  है ।इतना ही नहीं था उनके शाही पूर्वजों के प्रति उनकी श्रद्धा को भी मोइदम भरपूर रूप में दर्शाता है। यह लोग मृतकों की आत्माओं से आशीर्वाद लेने के लिए इन स्थानों पर” मी -डैम-मी-फी “  और तर्पण के ताई अहोम अनुष्ठान का सहारा लेते थे।

“मोइदम” ताई अहोम शब्द फांगमाई -डैम से लिया गया है। जहां फ्रांगमाई का अर्थ है “कब्र में डालना” और डैम का अर्थ है “मृत व्यक्ति की आत्मा” यह नाम से ही पूरी प्रक्रिया हमारे सामने आ जाती है । यह  जमीन से काफी ऊपर उठी होती है। शुरू में यह लकड़ियो द्वारा ही बनाई जाती थी, परंतु  17वीं शताब्दी से ही मुख्य रूप से यह ईंट, पत्थरों और मिट्टी से बनाई जाने लगी । उनका निर्माण पैमाने और जटिलता से भिन्न होता है।  संरचनात्मक रूप में मोइइम एक या एक से अधिक कक्ष होते हैं जिसमे मेहराब होते हैं। प्रत्येक  गुंबंदनामा कक्ष में एक  ऊंचा मंच है जहां शव रखा जाता था ,और ऊपर एक खुला मंडप , जिसे ये चौचाली कहते हैं ।इनमें कुछ सरल टीले होते हैं ,तो कुछ में  डिजाइनों वाली विस्तृत संरचनाओं में भी पाई जाती है ।यह मुख्य रूप से एक खोखला गुंबद है जिनमें भोजन, घोड़े , हाथी अन्य पशुओं के साथ, कभी-कभी रानियों और नौकरों के अवशेष भी शामिल होते हैं। यह वास्तुए मृतक की उच्च स्थिति को दर्शाता है।

अहोम राजघराने को दफनाने के लिए लखुराखान और घरफलिया नामक विशेष कबीले जिम्मेदार रहते थे ,और मुख्य रूप से चांग- रूंग- फुकुन नामक एक अधिकारी उसके निर्माण की देखरेख करता था।

इसमें  लोगों के पार्थिव शरीर के साथ उनके  सज्जा- सामान की सभी वस्तुएं भी दफनाई जाती थी। शाही मोइदम विशेष रूप से चराईदेव में पाई जाती थी, जबकि अन्य मोइदन  असम के जोरहाट और डिब्रूगढ़ के शहरों में स्थित है ।यह इस समुदाय के लिए एक विशेष पवित्र स्थल है। मोइदम को   असम का पिरामिड की संज्ञा भी दी जाती है।वही इसे प्राचीन “मिश्र के पिरामिड” का सम्मान भी दिया जाता है । इनकी भव्यता और औपचारिक महत्व का यह एक अनूठा उदाहरण पेश करता है ।इसमें लगभग राजाओं के 31 मोइदम और 160 रानियां के  मोइदम है ।अब तक 386 मोइदम में से चराई गांव में 90 रॉयल खोजे गए और यह   सबसे अच्छे संरक्षित भी है।

 इसमें एक अष्ट को गोला होता है जौर छोटी दीवार पूरे मोइदन को घेरे हुए है , यह पहला सांस्कृतिक स्थल और उत्तर -पूर्व में तीसरा स्थल है, जिसे विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया है। यह दुनिया भर में वास्तुकला एवं परिदृश्य विरासत के संरक्षण तथा संवर्धन के लिए समर्पित एक इतिहासिक खिड़की है। लेकिन यह भी सच है कि 18वी शताब्दी में ताई अहोम शासकों के धर्म परिवर्तन (मुख्यत हिन्दी और बौद्ध धर्म) के अपनाने के बाद दफनाने की प्रथा लगभग बंद सी हो गई और मृतकों का दाह संस्कार करना प्रारंभ हो गया, वहीं अब  केवल राख को चराइदेव के मोइदन में दफनाना प्रारंभ कर दिया गया। लेकिन यह समुदाय आज भी इन मोइदनो  की खुदाई को अपनी परंपराओं का अपमान मानते हैं। वह आज भी उनकी पूजा करते हैं। यहां तक की इन आदिवासियों ने उस युग में भी प्रकृति संतुलन का भी खास ख्याल रखा है। उन्होंने अहोम  विश्वास और आध्यात्मिक परिदृश्य दिखाते हुए मुख्यत यहां बरगद , तामूलों के पेड़ और पांडुलिपियों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले वृक्षों की भरमार की है।

लेकिन दुर्भाग्यवश करीब 600 वर्षों से चला आ रहा यह साम्राज्य लगभग 1800 के दशक में वर्मी आक्रमणों के आने से उनका कमर तोड़ दिया और फिर पूरा  साम्राज्य तितर-बितर  हो गया। प्रथम आंग्ल- वर्मी युद्ध 1824- 1826 में अंग्रेजों ने वर्मियों को खदेड़ कर अपना आधिपत्य जमा लिया, लेकिन भारत ने भी अपने धरोहर को सुंदर एवं सम्मान पूर्वक संजोकर रखने का  हर संभव प्रयास किया। इसी का परिणाम है कि आज इस योगदान को UNESCO  की अंतरराष्ट्रीय  सलाहकार संस्था अंतरराष्ट्रीय स्मारक एवं स्थल परिषद international council on moments and sites( ICOMOS) द्वारा विश्व धरोहर सूची के लिए शामिल किया गया है, वहीं भविष्य की पीढ़ियों के लिए इस ऐतिहासिक स्थानों की जानकारी की सूविधा भरपूर मात्रा में दिलाने का उज्जवल प्रयास किया है।

समय के साथ प्राकृतिक आपदाओं ने उसकी ऊंचाई को कुछ कम जरूर किया है लेकिन इस साम्राज्य की वास्तुकला की चमक  पूरे असम के समृद्ध विरासत को  गौरांवित करती है।यहां तक की केंद्रीय संस्कृति और पर्यटन मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने मोइदम की तुलना मिस्र के पिरामिड से कर उसकी महत्ता को सातवे आसमान पर पहुंचा दिया है। वहीं

इस  दफन प्रणाली को पहली बार जहां 2014 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल की अस्थाई सूची में शामिल किया। वहीं 26 जुलाई 2024 को नई दिल्ली में होने वाले विश्व धरोहर स्थल के 43 सांस्कृतिक एवं मिश्रित संपत्तियों की भव्यता एवं श्रद्धा का सम्मान देकर महता को बढ़ाने का भरपूर प्रयास किया है।  एक प्राचीन परंपरा की अनूठी झलक  के लिए इस ऐतिहासिक स्थलों की जानकारी प्रदान करने का एक बहुत ही सुंदर प्रयास किया है।
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डोली शाह
निकट -पी एच ई
पोस्ट -सुलतानी छोरा
जिला -हैलाकांदी
असम-788162
मोबाइल -9395726158

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