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चिड़ियों की कलरव शुरू ही हुआ था, निशा लुप्त होने की कगार पर खड़ी थी। कुछ देर बाद सूरज भी अपना पैर पसार ही लेता। दिन शुरू करने से पहले सोनू अपनी छोटी बच्ची को स्पर्श कर अवाक -“यह क्या, इतना ताप ! कल तो पूरी ठीक ही सोई थी!” एक स्पर्श करते हुए पिता राजेश ने कहा – “अभी मौसम बदल रहा है शायद इसलिए.. सोनी ने फौरन थर्मामीटर मुंह में घुसाया ….। बोली ,”मैं भी आपके साथ डाक्टर सिंह के यहां जाऊंगी।” सोनी ने जल्दी- जल्दी घर का साफ – सफाई का काम निपटा लिया। एक तरफ अदरक इलायची की चाय, तो दूसरी तरफ कच्ची पक्की आलू मटर की सब्जी। तो चांदी सी चमकती लोहियां बिल्कुल पसरंने के लिए तैयार थी। राजेश भी अपनी दिनचर्या से निवृत्त होकर कार लेकर डॉक्टर के चैंबर तक पहुंचे और फिर वो खुद आगे की ओर निकल गए । नेहा का ताप देख सोनी बहुत परेशान थी , वह बच्ची का सिर गोद में रख डॉक्टर साहब का इंतजार करती रही। डॉक्टर साहब के आते ही उसने फौरन जांच कराई। दवाइयों का पर्चा लेकर निकल ही रही थी कि एक मटमैली कमीज ,बदरंग पजामा और गले में एक गमछा देख यह कोई जाना- पहचाना सा लगा। कुछ समय तो वह टकटकी लगाए देखती रही, फिर एक हाथ में बुखार से तपती बच्ची तो दूसरी तरफ दवाइयों का पर्चा लिए — ” “प्रणाम चाचा जी!” उसके मुंह से अचानक निकला। ” क्या आप माधुरी के बाबूजी है?” ” हां बेटा , वह हमारी बेटी थी, क्या तुम उसे जानती हो?” ” हां चाचा जी, 12वीं तक हमने साथ ही पढ़ाई की थी ,” ” क्या हुआ है आपको ?”अकेले आए हैं । “हां बेटा, इस बुढ़ापे में अकेलापन ही मेरा साथी है और यहीं काटने को दौड़ता है।” “लेकिन चाचा जी ,जहां तक मुझे याद है माधुरी के दो भाई भी थे। वह अक्सर उनकी बातें किया करती थी।” “हां बेटा, मेरे दो बेटे हैं, दोनों परदेस में अपनी- अपनी दुनिया में व्यस्त हैं। किसी को मेरी खबर तक लेने की फुर्सत नहीं है।” ” हां चाचा जी आजकल हर कोई इतना व्यस्त हो चुका है कि…. चाचा जी वैसे माधुरी कैसी है ? कहां शादी हुई उसकी ! ” ठीक ही है , इंदौर के किसी नामी- गिरामी सीमेंट उद्योग के मैनेजर के साथ है। वह भी अपनी ही दुनिया में व्यस्त है ।” “आती नहीं वह… “ “लगभग पांच साल हो गए ,विवाह के बाद आई ही नहीं ,” “मगर चाचा जी …” उसे परिवार की इज्जत से ज्यादा प्यारा एक उद्योगपति लगने लगा और फिर उसने पढ़ाई के दौरान ही उसके साथ विवाह कर लिया। सूचनाएं मिलने पर हमने उसे बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन उसके बढ़ते रवैये को देख हमने उसकी जिंदगी उसे सौंप दी । मां की मृत्यु के वक्त उसने घर वापसी की कोशिश की लेकिन अपनी प्रतिष्ठा देख उसे हमने न बुलाना ही सही समझा। उसके बाद उसने कई बार खबरा -खबर भी ली, लेकिन हमने समाज में अपनी मर्यादा देख अपनी बेटी त्याग दिया।” “पर चाचा जी क्या आपके पास उसका कोई फोन नंबर वगैरह है ।” वे मोबाइल आगे करते हुए बोले, “निकाल लो मुझे तो दिखता नहीं ।” “चाचा जी क्या आपको आंखों में भी दिक्कत है?” “हां बेटा ,दर्द झेलते- झेलते यह आंखें भी बूढी हो गई है। इतना ही नहीं शाम ने भी परदेस में अपने कलिग के साथ घर बसा लिया है लेकिन वह बीच-बीच में घर आ जाता है। “ “लेकिन आपका यहां अकेला आना सही नहीं है। “ “हां बेटा, कल पड़ोस के एक बच्चे को साथ लाया था लेकिन हर दिन किसको…” “आपकी बात तो सही है , बाबूजी आप अकेले हैं तो भैया लोगों के पास क्यों नहीं चले जाते?” “बेटा गया था लेकिन उस चार फुट के कमरे में मेरा दम घुटता है। मेरा मानना है चार दिन की जिन्दगी खाऊं, न खाऊं, लेकिन चिक -चिक से दूर रहूँ।”
“बाबूजी ….लेकिन भैया ने दूसरी जाति में विवाह किया तो उन्हें घर आने की अनुमति है लेकिन माधुरी को नहीं ,आखिर क्यों? क्या आपका मन नहीं करता, आप उसे देखें !” “बेटा मन करता है लेकिन….” “क्या लेकिन चाचा जी ,जब भैया आ सकते हैं तो माधुरी क्यों नहीं ? “बेटा ऐसी बात नहीं है , जब यह काम माधुरी ने किया था तो उस वक्त हमारा समाज इन चीजों को बड़ी बुरी नजर से देखता था लेकिन आज यह सब कुछ आम हो चुका है।” “लेकिन चाचा जी, समाज तो हम सब से ही बनता है… और यह बात तो छोड़ ही दीजिए ।एक पिता का मन कैसे मान गया? कभी मन नहीं होता जानने का कि वो कैसी है,किस हाल में है ??” “मन करता है बेटा, लेकिन उस वक्त मैं मजबूर था और अब…. “ बातें करते –करते दोनों एक साथ घर को निकल गये। बाबूजी घर तो जरूर आ गए लेकिन मन- मस्तिष्क में सोनी की बातें कचोटती रही । पूरा जीवन बराबरी का पाठ पढ़ाने वाला अपने ही घर में इतना दोहरा व्यवहार….. कुछ हद तक तो समय को दोषी ठहराते लेकिन मैं! मैंने एक पिता बनकर क्या किया ??? समाज में वैसी इज्जत का क्या जो अपनों की नजरों में ही गिरकर मिले। सोनी ने घर पहुंच कर अपने कामों से निवृत हो कर माधुरी को फोन लगाया। “अरे, मैं सोनी बोल रही हूं।” “कैसे याद आई मेरी!” “नहीं, उस दिन तेरे बाबूजी मिले थे तो उनसे ही तेरी जानकारी मिली।” “कैसे हैं वह?”, माधुरी ने पूछा। “ठीक नहीं है यार, तुझे मिलने का मन नहीं करता।” “यार मन का क्या है !!! ब्याह के बाद आज तक मै मायके कभी नहीं गई।” “मुझे पता है लेकिन अब आजा… एक बेटी होने का सही फर्ज निभा… और बाबूजी की हालत भी सही नहीं है।एक बार आकर मिल ले।” “मगर सोनी कैसे!” “मुझे तो मां के मरने पर भी घर आने की अनुमति नहीं मिली थी।” “कोई बात नहीं, सब पर मिट्टी डालकर तू फौरन अपने भोले- भाले पिता के पास आ जा।” बात गले तक पहुंची भी न थी कि बाबूजी की घंटी देख दंग भरे शब्दों में बोली – “बाबूजी, आप …..” “हां बेटा, तेरे जीवन का कलंक, गुनहगार तेरा बाबूजी…” “बाबूजी ऐसे क्यों बोल रहे हैं , “ “कुछ भी हो, हो तो मेरे पिता ही …इसमें तो कोई दो राय नहीं ….” “बेटा! वह किस काम का पिता, जिसने चंद खुशी के लिए अपनी औलाद को ही भुला दिया ।” खुशियों के हिलोर लगाती सारे गमों को भुलाकर वात्सल्य प्रेम में डूबी माधुरी घंटो बातें करती रही। उद्योगपति के घर आते ही माधुरी ने अपनी सारी खुशियां व्यक्त की। उनसे फौरन मिलने की इच्छा दिखाई। वर्षों के बाद माधुरी की खुशी देख उद्योगपति भी फौरन जाने को तैयार हो गये। अगले सप्ताह की टिकट भी बुक कर ली। बाबूजी ने दोनों बच्चों, श्याम और राम, को माधुरी के आने की सूचना दी। माधुरी ने भी अपने साथ मां के लिए एक साड़ी और पिता की हर जरूरत की चीजे ले ली। दरवाजे पर दोनों को सामने देख बाबू जी की किंकर्त्तव्यविमूढ़ की स्थिति, छल छलाई आंखें, गला रुदध देख, वह बाबूजी को जा थामी। दोनों के खुशी भरे आंसू देख उद्योगपति दूर खड़े आनंद विभोर हो रहे थे। कुछ पश्चात ही माधुरी मिठाई का पोटला, लाई हुई वस्तुएं तथा मां की साड़ी समझाते हुए – ” बाबूजी यह सब आपके लिए।” स्पर्श के साथ मुस्कुराते हुए- “बेटा यह सब किसके लिए और यह साड़ी!!” “हां बाबूजी, मैंने अपनी पहली साड़ी के साथ मां के लिए भी एक साड़ी खरीदी थी, जो आज तक मेरे पास उनकी अमानत बनकर रही …..अब यह आपकी जिम्मेदारी ….” माधुरी की भावनाएं देख बाबूजी गुहार लगा रहे थे। मुझे माफ कर देना बेटा, मैं तुम्हारा गुनहगार हूं , लेकिन हां पन्द्रह दिनों बाद ही होलिका दहन है। मैं चाहता हूं कि तुम दोनों तब तक यहीं रहो जिससे मुझे इस दहन के साथ ही अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने का अवसर मिले।” “बस बाबूजी बस…. भूल जाइए सब कुछ ….” इतने दिनों बाद दोनों भाइयों का आगमन देख पूरा घर संगीत की सरगम में डूब चुका था। एक तरफ श्याम कभी माधुरी को अपने पास बिठाता, तो कभी राम अपनी बगल, तो कभी पिता की गोद में जाकर बैठ जाती। बच्चों की किलकारियां देख बाबूजी खुश तो बहुत थे लेकिन उनके चेहरे पर फिर भी एक शिकन तो जरूर थी। उद्योगपति भी पहली बार इस खुशी का अनुभव कर मानो गंगा में डुबकी लगा रहे थे। देखते-देखते सप्ताह बीत गया। राम के जाने का दिन भी करीब आ गया। राम भी सोच में पड़ गया। एक साथ सब को चाय की चुस्कियां लेते देख माधुरी कहने लगी– “इस खुशी के लिए हमें सोनी को एक बार जरूर शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसके कारण ही आज हम सब यहां एक साथ हैं।” “हां बेटी, क्यों ना होली के दिन उसे भी सपरिवार निमंत्रित किया जाए।” बाबूजी ने इच्छा जाहिर की। “अरे! वही सोनी ना, जिसने तुझे दौड़ते हुए धक्का देकर गिरा दिया था।” श्याम के यह कहते ही सभी खिल खिलाकर जोर से हंस पड़े। अगले दिन ही बाबूजी बाजार से रंगों से भरा थैला उठा ला आए, साथ ही पांच पिचकारियां भी। श्याम अवाक शब्दों में बोला -” बाबूजी इतनी पिचकारियां…. मगर क्यों! अब हम बड़े हो गए हैं, पिचकारियों कौन खेलेगा।” “बेटा! कितने भी बड़े हो जाओ मेरे लिए तो बच्चे ही रहोगे। मैं शुरू से ही पांच पिचकारियां खरीदता था। हर एक के हाथों में रंगो से भरी पिचकारियां देख तुम्हारी मां बहुत खुश होती थी। वहीं दिन मैं पुनः दोहराना चाहता हूं, जाने यमराज कब मुझे अपने पास बुला ले।” “बाबूजी ऐसा ना बोलिए। अब आप यहां अकेले नहीं रहेंगे, हमारे साथ इंदौर चलिए वहीं सब एक साथ रहेंगे।” उद्योगपति की यह बात सुन बाबूजी गदगद हो उठे। होलिका दहन की तैयारी के साथ ही माधुरी ने भांग भरे ग्लास भी सजा दिए। बचपन की तरह ही सभी रंग विभोर होते गए। घर की लक्ष्मी के सारे कामों को किया देखकर बाबूजी छल छलाई आंखों से बोले “बेटी तो बेटी ही होती है… “ आज से मेरी दो बेटी और चार बेटे हैं। पिता के चेहरे की खुशी देख सभी मुस्कुरा कर जोर से बोले -“बुरा ना मानो होली है….” डोली शाह *** ਪੰਛੀਆਂ ਨੇ ਚਹਿਕਣਾ ਸ਼ੁਰੂ ਹੀ ਕੀਤਾ ਸੀ, ਨਿਸ਼ਾ ਲੁਪਤ ਹੋਣ ਦੀ ਕਗਾਰ ‘ਤੇ ਖੜ੍ਹੀ ਸੀ। ਕੁਝ ਸਮੇਂ ਬਾਅਦ ਸੂਰਜ ਵੀ ਪੈਰ ਪਸਾਰ ਲੈਂਦਾ। ਜੀਵਨ ਦੇ ਕਾਰਜ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰਨ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ, ਸੋਨੂੰ ਨੇ ਆਪਣੀ ਛੋਟੀ ਧੀ ਨੂੰ ਸਪਰਸ਼ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਹੈਰਾਨ ਹੋ ਗਿਆ – “ਇਹ ਕੀ ਹੈ, ਇੰਨਾ ਤਾਪ! ਕੱਲ੍ਹ ਤਾਂ ਠੀਕ ਠਾਕ ਸੁੱਤੀ ਸੀ!” ਪਿਤਾ ਰਾਜੇਸ਼ ਨੇ ਸੋਚਿਆ – “ਸ਼ਾਇਦ ਇਸ ਸਮੇਂ ਮੌਸਮ ਬਦਲ ਰਿਹਾ ਹੈ… ਸੋਨੀ ਨੇ ਝੱਟ ਥਰਮਾਮੀਟਰ ਮੂੰਹ ਵਿੱਚ ਪਾਇਆ… ਉਸਨੇ ਕਿਹਾ, “ਮੈਂ ਵੀ ਤੁਹਾਡੇ ਨਾਲ ਡਾ: ਸਿੰਘ ਦੇ ਘਰ ਜਾਵਾਂਗੀ।” ਸੋਨੀ ਨੇ ਘਰ ਦੀ ਸਫ਼ਾਈ ਦਾ ਕੰਮ ਜਲਦੀ ਪੂਰਾ ਕਰ ਲਿਆ। ਇੱਕ ਪਾਸੇ ਅਦਰਕ ਤੇ ਇਲਾਇਚੀ ਵਾਲੀ ਚਾਹ ਸੀ ਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਕੱਚੇ ਆਲੂ ਤੇ ਮਟਰ ਦੀ ਸਬਜ਼ੀ ਸੀ। ਚਾਂਦੀ ਦੀ ਚਮਕਦੀ ਲੋਅ ਫੈਲਣ ਲਈ ਿਤਆਰ ਸੀ। ਰਾਜੇਸ਼ ਵੀ ਆਪਣੀ ਰੋਜ਼ਾਨਾ ਦੀ ਰੁਟੀਨ ਤੋਂ ਵਿਹਲਾ ਹੋ ਕੇ ਕਾਰ ਲੈ ਕੇ ਡਾਕਟਰ ਦੇ ਚੈਂਬਰ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚਿਆ ਅਤੇ ਫਿਰ ਉਹ ਅੱਗੇ ਵਲਾਂ ਹੋਇਆ। ਨੇਹਾ ਦੇ ਬੁਖਾਰ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ ਸੋਨੀ ਬਹੁਤ ਪਰੇਸ਼ਾਨ ਸੀ, ਉਹ ਬੱਚੇ ਦਾ ਸਿਰ ਆਪਣੀ ਗੋਦ ‘ਚ ਰੱਖ ਕੇ ਡਾਕਟਰ ਦਾ ਇੰਤਜ਼ਾਰ ਕਰਦੀ ਰਹੀ। ਜਿਵੇਂ ਹੀ ਡਾਕਟਰ ਪਹੁੰਚਿਆ, ਉਸਨੇ ਤੁਰੰਤ ਜਾਂਚ ਕੀਤੀ। ਜਦੋਂ ਉਹ ਦਵਾਈ ਦਾ ਨੁਸਖਾ ਲੈ ਕੇ ਜਾ ਰਹੀ ਸੀ, ਤਾਂ ਇੱਕ ਗੰਦੀ ਕਮੀਜ਼, ਰੰਗੀਨ ਪਜਾਮਾ ਅਤੇ ਗਲੇ ਵਿਚ ਰੁਮਾਲ ਦੇਖ ਕੇ ਉਸਨੂੰ ਕੋਈ ਜਾਣਿਆ ਪਹਿਚਾਣਿਆ ਜਾਪਿਆ। ਕੁਝ ਦੇਰ ਤਾਂ ਉਹ ਉਸ ਵੱਲ ਦੇਖਦੀ ਰਹੀ, ਫਿਰ ਇੱਕ ਹੱਥ ਵਿੱਚ ਬੁਖਾਰ ਵਾਲੀ ਕੁੜੀ ਨੂੰ ਫੜ ਅਤੇ ਦੂਜੇ ਹੱਥ ਵਿੱਚ ਦਵਾਈ ਦਾ ਨੁਸਖਾ ਫੜੀ—“ਨਮਸਕਾਰ ਅੰਕਲ!” ਉਸਦੇ ਮੂੰਹੋਂ ਅਚਾਨਕ ਨਿਕਲਿਆ। “ਨਮਸਤੇ, ਪਰ ਪੁੱਤਰ, ਮੈਂ ਤੁਸਾਂ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਪਛਾਣਿਆ!” “ਹਾਂ ਅੰਕਲ, ਅਸੀਂ 12ਵੀਂ ਜਮਾਤ ਤੱਕ ਇਕੱਠੇ ਪੜ੍ਹੇ ਹਾਂ। ਕੀ ਹੋਇਆ ਤੁਹਾਨੂੰ?” ਤੁਸੀਂ ਇਕੱਲੇ ਆਏ ਹੋ?” ਉਹ ਉਦਯੋਗਪਤੀ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਪਰਵਿਾਰ ਦੀ ਇੱਜ਼ਤ ਨਾਲੋਂ ਵੱਧ ਪਸੰਦ ਕਰਨ ਲੱਗੀ ਅਤੇ ਫਿਰ ਉਸਨੇ ਪੜ੍ਹਦਿਅਾਂ ਪੜ੍ਹਦਿਅਾਂ ਹੀ ਉਸ ਨਾਲ ਵਿਆਹ ਕਰ ਲਿਆ। ਸੂਚਨਾ ਮਿਲਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਅਸੀਂ ਉਸ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਸਮਝਾਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਪਰ ਉਸ ਦੇ ਵਧਦੇ ਰਵੱਈਏ ਨੂੰ ਦੇਖਦਿਆਂ ਅਸੀਂ ਉਸ ਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਉਸ ਦੇ ਹਵਾਲੇ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਆਪਣੀ ਮਾਂ ਦੀ ਮੌਤ ਦੇ ਸਮੇਂ, ਉਸਨੇ ਘਰ ਪਰਤਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਪਰ ਆਪਣੀ ਇਜ਼ਤ ਨੂੰ ਵੇਖਦਿਅਾਂ, ਅਸੀਂ ਉਸਨੂੰ ਨਾ ਸੱਦਣਾ ਹੀ ਚੰਗਾ ਸਮਝਿਆ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਉਸ ਨੇ ਕਈ ਵਾਰ ਖ਼ਬਰ-ਸਾਰ ਲੈਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਪਰ ਸਮਾਜ ਵਿੱਚ ਆਪਣੀ ਇੱਜ਼ਤ-ਮਰਿਆਦਾ ਵੇਖਦਿਆਂ ਹੋਏ ਅਸੀਂ ਆਪਣੀ ਧੀ ਨੂੰ ਛੱਡ ਦਿੱਤਾ।” “ਪਰ ਚਾਚਾ ਜੀ, ਤੁਹਾਡੇ ਕੋਲ ਉਸਦਾ ਕੋਈ ਫ਼ੋਨ ਨੰਬਰ ਜਾਂ ਪਤਾ-ਥਹੁ ਹੈ?” ਉਸਨੇ ਆਪਣਾ ਮੋਬਾਈਲ ਅਗ੍ਹਾਂ ਵਧਾਂਦਿਆ ਕਿਹਾ “ਇਸ ਵਿੱਚੋਂ ਵੇਖ ਲੈ, ਮੈਨੂੰ ਤਾਂ ਚੰਗੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀਹਦਾ ਨਹੀਂ।” “ਹਾਂ ਬੇਟਾ, ਕੱਲ੍ਹ ਮੈਂ ਗੁਆਂਢ ਤੋਂ ਇੱਕ ਬੱਚੇ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਲਿਆਇਆ ਸੀ, ਪਰ ਹਰ ਰੋਜ਼ ਕਿਸਨੂੰ ਲਿਆਵਾਂ …” “ਬਾਬੂ ਜੀ…ਪਰ ਜੇ ਭਰਾ ਨੇ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਜਾਤ ਵਿੱਚ ਵਿਆਹ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਉਸਨੂੰ ਘਰ ਆਉਣ ਦੀ ਇਜਾਜ਼ਤ ਹੈ ਪਰ ਮਾਧੁਰੀ ਨੂੰ ਇਜਾਜ਼ਤ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਆਖ਼ਰਕਾਰ ਇਹ ਕਿਉਂ? ਕੀ ਤੁਹਾਡਾ ਦਿਲ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ਕਿ ਤੁਸੀਂ ਉਸਨੂੰ ਵੀ ਵੇਖੋ!” “ਬੇਟਾ, ਅਜਹਿਾ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਜਦੋਂ ਮਾਧੁਰੀ ਨੇ ਇਹ ਕੰਮ ਕੀਤਾ ਸੀ, ਉਸ ਸਮੇਂ ਸਾਡਾ ਸਮਾਜ ਇਨ੍ਹਾਂ ਚੀਜ਼ਾਂ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਬੁਰੀ ਨਜ਼ਰ ਨਾਲ ਦੇਖਦਾ ਸੀ, ਪਰ ਅੱਜ ਇਹ ਸਭ ਆਮ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ।” “ਪਰ ਚਾਚਾ ਜੀ, ਸਮਾਜ ਸਾਡੇ ਸਾਰਿਅਾਂ ਨਾਲ ਹੀ ਬਣਦਾ ਹੈ… ਤੇ ਇਸ ਗੱਲ ਨੂੰ ਤਾਂ ਛੱਡ ਹੀ ਦਿਓ। ਇੱਕ ਪਿਤਾ ਦਾ ਦਿਲ ਕਿਵੇਂ ਮੰਨ ਗਿਆ? ਕੀ ਤੁਹਾਡਾ ਦਿਲ ਕਦੇ ਇਹ ਜਾਨਣ ਦੀ ਚਾਹ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ਕਿ ਉਹ ਕਿਵੇਂ ਹੈ, ਕਿਸ ਹਾਲਤ ਵਿੱਚ ਹੈ?” “ਮੈਨੂੰ ਅਜਹਿਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ, ਪੁੱਤਰ, ਪਰ ਉਸ ਸਮੇਂ ਮੈਂ ਬੇਵੱਸ ਸੀ ਅਤੇ ਹੁਣ …” ਗੱਲਾਂ ਕਰਦੇ-ਕਰਦੇ ਦੋਵੇਂ ਇਕੱਠੇ ਘਰ ਲਈ ਰਵਾਨਾ ਹੋ ਗਏ। ਬਾਬੂ ਜੀ ਘਰ ਜ਼ਰੂਰ ਆਏ ਪਰ ਸੋਨੀ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਮਨ ਨੂੰ ਪਰੇਸ਼ਾਨ ਕਰਦੀਆਂ ਰਹੀਆਂ। ਜਿਸਨੇ ਸਾਰੀ ਉਮਰ ਬਰਾਬਰੀ ਦਾ ਪਾਠ ਪੜ੍ਹਾਇਆ, ਆਪਣੇ ਹੀ ਘਰ ਵਿੱਚ ਅਜਹਿਾ ਦੋਗਲਾ ਵਤੀਰਾ… ਕਿਸੇ ਹੱਦ ਤੱਕ ਤਾਂ ਸਮੇਂ ਨੂੰ ਦੋਸ਼ੀ ਠਹਿਰਾਇਆ ਪਰ ਮੈਂ! ਮੈਂ ਇੱਕ ਪਿਤਾ ਵਜੋਂ ਕੀ ਕੀਤਾ ??? ਸਮਾਜ ਵਿੱਚ ਉਸ ਇੱਜ਼ਤ ਦਾ ਕੀ, ਜੋ ਆਪਣਿਅਾਂ ਦੀਆਂ ਨਜ਼ਰਾਂ ਵਿੱਚ ਡਿੱਗ ਕੇ ਹੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤੀ ਜਾ ਸਕਦੀ ਹੈ? ਘਰ ਪਹੁੰਚ ਕੇ ਸੋਨੀ ਨੇ ਆਪਣੇ ਕੰਮ ਤੋਂ ਵਿਹਲੀ ਹੋ ਕੇ ਮਾਧੁਰੀ ਨੂੰ ਫੋਨ ਕੀਤਾ। “ਯਾਰ, ਮਨ ਦਾ ਕੀ ਹੈ? ਮੈਂ ਵਿਆਹ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਅੱਜ ਤੱਕ ਕਦੇ ਆਪਣੇ ਮਾਪਿਾਅਾਂ ਦੇ ਘਰ ਹੀ ਨਹੀਂ ਗਈ।” “ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀਂ, ਹਰ ਚੀਜ਼ ‘ਤੇ ਮਿੱਟੀ ਪਾ ਅਤੇ ਤੁਰੰਤ ਹੀ ਆਪਣੇ ਭੋਲੇ ਭਾਲੇ ਪਿਤਾ ਨੂੰ ਮਿਲਣ ਲਈ ਆ ਜਾ।” ਗੱਲ ਅਜੇ ਉਸ ਦੇ ਗਲ਼ੇ ਤੱਕ ਵੀ ਨਹੀਂ ਪਹੁੰਚੀ ਸੀ ਕਿ ਉਹ ਬਾਬੂ ਜੀ ਵੱਲੋਂ ਘਰ ਦੀ ਘੰਟੀ ਵੱਜੀ ਦੇਖ ਕੇ ਦੰਗ ਰਹਿ ਗਈ। ਭਰੇ ਲਹਿਜੇ ਵਿੱਚ ਬੋਲੀ- “ਬਾਬੂ ਜੀ, ਤੁਸੀਂ…।” “ਹਾਂ ਬੇਟਾ, ਤੇਰੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਕਲੰਕ, ਦੋਸ਼ੀ ਤੇਰਾ ਬਾਪ…” “ਪੁੱਤ! ਉਹ ਬਾਪ ਕਿਸ ਕੰਮ ਦਾ ਪਿਤਾ ਜਿਸਨੇ ਥੋੜੀ ਜਿਹੀ ਖੁਸ਼ੀ ਦੀ ਖਾਤਰ ਆਪਣੀ ਹੀ ਸੰਤਾਨ ਨੂੰ ਭੁੱਲਾ ਦਿੱਤਾ ਹੋਵੇ।” ਹਰ ਦੁੱਖ-ਸੁੱਖ ਨੂੰ ਭੁਲਾ ਕੇ ਮੋਹ-ਪਿਆਰ ਵਿੱਚ ਡੁੱਬੀ ਮਾਧੁਰੀ ਘੰਟਿਆਂ ਬੱਧੀ ਪਿਤਾ ਨਾਲ ਗੱਲਾਂ ਕਰਦੀ ਰਹੀ। ਉਦਯੋਗਪਤੀ ਦੇ ਘਰ ਆਉਂਦਿਅਾਂ ਹੀ ਮਾਧੁਰੀ ਨੇ ਆਪਣੀ ਸਾਰੀ ਖੁਸ਼ੀ ਜ਼ਾਹਰ ਕੀਤੀ। ਉਸਨੇ ਵੀ ਆਪਣੇ ਸਹੁਰੇ ਨੂੰ ਤੁਰੰਤ ਮਿਲਣ ਦੀ ਇੱਛਾ ਜ਼ਾਹਰ ਕੀਤੀ। ਮੁਦੱਤਾਂ ਬਾਅਦ ਮਾਧੁਰੀ ਦੀ ਖੁਸ਼ੀ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ ਉਦਯੋਗਪਤੀ ਵੀ ਤੁਰੰਤ ਮਿਲਣ ਜਾਣ ਲਈ ਤਿਆਰ ਹੋ ਗਏ। ਅਗਲੇ ਹਫਤੇ ਦੀਆਂ ਟਿਕਟਾਂ ਬੁੱਕ ਹੋ ਗਈਅਾਂ। ਬਾਬੂ ਜੀ ਨੂੰ ਮਾਧੁਰੀ ਨੇ ਬੱਚਿਅਾਂ ਸ਼ਿਅਾਮ ਅਤੇ ਰਾਮ ਸਮੇਤ ਆਉਣ ਦੀ ਸੂਚਨਾ ਦਿੱਤੀ। ਮਾਧੁਰੀ ਆਪਣੀ ਮਾਂ ਲਈ ਸਾੜੀ ਅਤੇ ਪਿਤਾ ਲਈ ਸਾਰੀਆਂ ਜ਼ਰੂਰੀ ਚੀਜ਼ਾਂ ਵੀ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਲੈ ਗਈ। ਦੋਹਾਂ ਨੂੰ ਦਰਵਾਜ਼ੇ ‘ਤੇ ਦੇਖ ਕੇ, ਬਾਬੂਜੀ ਦੀ ਘਬਰਾਹਟ ਭਰੀ ਹਾਲਤ, ਪਾਣੀ ਭਰੀਆਂ ਅੱਖਾਂ, ਘੁੱਟਿਆ ਹੋਇਆ ਗਲ਼ਾ ਦੇਖ ਕੇ ਮਾਧੁਰੀ ਨੇ ਜਾ ਕੇ ਬਾਬੂ ਜੀ ਨੂੰ ਜਾਫੀ ਪਾ ਲਈ। ਦੋਵਾਂ ਦੇ ਖੁਸ਼ੀ ਦੇ ਹੰਝੂ ਦੇਖ ਕੇ ਦੂਰੀ ‘ਤੇ ਖੜ੍ਹੇ ਸਨਅਤਕਾਰ ਖੁਸ਼ੀ ਨਾਲ ਭਰ ਗਏ। ਥੋੜੀ ਦੇਰ ਬਾਅਦ ਮਾਧੁਰੀ ਨੇ ਮਠਿਆਈਆਂ ਦਾ ਬੰਡਲ, ਲਿਅਾਂਦੀਆਂ ਚੀਜ਼ਾਂ ਅਤੇ ਮਾਂ ਦੀ ਸਾੜ੍ਹੀ ਚੁੱਕਦਿਆ ਕਿਹਾ – “ਬਾਬੂ ਜੀ, ਇਹ ਸਭ ਤੁਹਾਡੇ ਲਈ ਹੈ।” ਸਭ ਵਸਤਾਂ ਨੂੰ ਹੱਥ ਲਾਂਦੇ ਹੋਏ ਬਾਬੂ ਜੀ ਬੋਲੇ – “ਬੇਟਾ, ਇਹ ਸਭ ਅਤੇ ਇਹ ਸਾੜੀ ਕਿਸ ਲਈ ਹੈ?” “ਹਾਂ ਬਾਬੂ ਜੀ, ਆਪਣੀ ਪਹਿਲੀ ਸਾੜੀ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਮੈਂ ਆਪਣੀ ਮਾਂ ਲਈ ਵੀ ਇਕ ਸਾੜ੍ਹੀ ਖਰੀਦੀ ਸੀ, ਜੋ ਅੱਜ ਤੱਕ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਅਮਾਨਤ ਵਜੋਂ ਮੇਰੇ ਕੋਲ ਪਈ ਰਹੀ… ਹੁਣ ਉਸ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚਾਉਣਾ ਇਹ ਤੁਹਾਡੀ ਜ਼ੰੁਮੇਵਾਰੀ ਹੈ…” ਮਾਧੁਰੀ ਦੀਆਂ ਭਾਵਨਾਵਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ ਬਾਬੂ ਜੀ ਜੋਰ ਜੋਰ ਨਾਲ ਰੋ ਰਹੇ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ “ਮੈਨੂੰ ਮਾਫ਼ ਕਰ ਦੇਵੀਂ ਪੁੱਤਰਾ, ਮੈਂ ਤੇਰਾ ਦੋਸ਼ੀ ਹਾਂ, ਪਰ ਹਾਂ, ਪੰਦਰਾਂ ਦਿਨਾਂ ਬਾਅਦ ਹੋਲਿਕਾ ਦਹਿਨ ਹੈ। ਮੈਂ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਿਤੁਸੀਂ ਦੋਵੇਂ ਇੱਥੇ ਰਹੋ ਤਾਂ ਜੋ ਮੈਨੂੰ ਇਸ ਹੋਲਿਕਾ ਦੀ ਅੱਗ ਨਾਲ ਆਪਣੀਆਂ ਗਲਤੀਆਂ ਦਾ ਪ੍ਰਾਸਚਿਤ ਕਰਨ ਦਾ ਮੌਕਾ ਵੀ ਮਿਲ ਜਾਵੇ।” ਇੰਨੇ ਦਿਨਾਂ ਬਾਅਦ ਦੋਵਾਂ ਦੋਹਤਿਅਾਂ ਦੀ ਆਮਦ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ ਸਾਰਾ ਘਰ ਸੰਗੀਤ ਨਾਲ ਗੂੰਜ ਉੱਠਿਆ। ਇਕ ਪਾਸੇ ਸ਼ਿਆਮ ਕਦੇ ਮਾਧੁਰੀ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਕੋਲ ਬਿਠ ਲੈਂਦਾ, ਕਦੇ ਰਾਮ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਕੋਲ ਬਿਠਾ ਲੈਂਦਾ ਤੇ ਕਦੇ ਪਿਤਾ ਦੀ ਗੋਦ ਵਿੱਚ ਬੈਠ ਜਾਂਦਾ। ਬਾਬੂ ਜੀ ਬੱਚਿਅਾਂ ਦਾ ਹਾਸਾ ਸੁਣ ਕੇ ਬਹੁਤ ਖੁਸ਼ ਹੋਏ ਪਰ ਫਿਰ ਵੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਚਿਹਰੇ ‘ਤੇ ਇੱਕ ਸ਼ਿਕਨ ਸੀ। ਇੰਝ ਲੱਗ ਰਿਹਾ ਸੀ ਜਿਵੇਂ ਉਦਯੋਗਪਤੀ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਇਸ ਖੁਸ਼ੀ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਕਰਕੇ ਗੰਗਾ ਵਿੱਚ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰ ਰਹੇ ਹੋਣ। ਵੇਹੰਦਿਅਾਂ ਵੇਹੰਦਿਅਾਂ ਹੀ ਹਫ਼ਤਾ ਬੀਤ ਗਿਆ। ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਜਾਣ ਦਾ ਦਿਨ ਵੀ ਨੇੜੇ ਆ ਗਿਆ। ਇਸ ਦੌਰਾਨ ਬਾਬੂ ਜੀ ਕਹਣਿ ਲੱਗੇ, “ਬੇਟਾ! ਜੇ ਤੂੰ ਅਗਲੇ ਹਫ਼ਤੇ ਹੀ ਆਉਂਦਾ ਤੇ ਇਕ ਹਫ਼ਤਾ ਠਹਰਿਦਾ ਤਾਂ ਹੋਲੀ ਯਾਦਗਾਰ ਬਣ ਜਾਂਦੀ।” ਸਾਰਿਆ ਨੂੰ ਇਕੱਠੇ ਚਾਹ ਦੀਅਾਂ ਚੁਸਕੀਆਂ ਲੈਂਦੇ ਦੇਖ ਮਾਧੁਰੀ ਨੇ ਕਿਹਾ, “ਸਾਨੂੰ ਇਸ ਖੁਸ਼ੀ ਲਈ ਸੋਨੀ ਦਾ ਇਕ ਵਾਰ ਧੰਨਵਾਦ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਉਸ ਦੀ ਬਦੌਲਤ ਹੀ ਅੱਜ ਅਸੀਂ ਇੱਥੇ ਇਕੱਠੇ ਹਾਂ।” “ਹਾਂ ਬੇਟੀ, ਕਿਉਂ ਨਾ ਹੋਲੀ ਵਾਲੇ ਦਿਨ ਉਸ ਨੂੰ ਪਰਵਿਾਰ ਸਮੇਤ ਬੁਲਾਇਆ ਜਾਵੇ।” ਬਾਬੂ ਜੀ ਨੇ ਇੱਛਾ ਪ੍ਰਗਟ ਕੀਤੀ। “ਉਏ! ਉਹੀ ਸੋਨੀ, ਜਿਸ ਨੇ ਤੈਨੂੰ ਧੱਕਾ ਦਿੱਤਾ ਸੀ ਤੇ ਦੌੜਦਅਾਂ ਡਿੱਗ ਪਈ ਸੈਂ?” ਇਹ ਸੁਣਦਿਅਾਂ ਹੀ ਸਾਰੇ ਹੱਸ ਪਏ। ਅਗਲੇ ਹੀ ਦਿਨ ਬਾਬੂ ਜੀ ਬਜ਼ਾਰ ਤੋਂ ਰੰਗਾਂ ਨਾਲ ਭਰਿਅਾਂ ਬੈਗ ਲੈ ਕੇ ਆਏ, ਨਾਲ ਹੀ ਰੰਗ ਪਾਉਣ ਵਾਲੀਅਾਂ ਪੰਜ ਪਚਿਕਾਰੀਅਾਂ ਵੀ। ਸ਼ਿਆਮ ਨੇ ਸਹਿਜ-ਸੁਭਾ ਪੁੱਛਿਆ – “ਬਾਬੂ ਜੀ, ਇੰਨੀਅਾਂ ਸਾਰੀਅਾਂ ਪਚਿਕਾਰੀਅਾਂ… ਪਰ ਕਿਉਂ? ਹੁਣ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਵੱਡੇ ਹੋ ਗਏ ਹਾਂ, ਪਚਿਕਾਰੀਆਂ ਨਾਲ ਕੌਣ ਖੇਡੇਗਾ?” “ਪੁੱਤਰ! ਤੂੰ ਜਿੰਨਾ ਮਰਜ਼ੀ ਵੱਡਾ ਹੋ ਜਾਵੇਂ, ਮੇਰੇ ਲਈ ਸਦਾ ਬੱਚਾ ਹੀ ਰਹੇਂਗਾ। ਮੈਂ ਸ਼ੁਰੂ ਤੋਂ ਹੀ ਪਾਣੀ ਦੀਆਂ ਪੰਜ ਪਚਿਕਾਰੀਅਾਂ ਹੀ ਖਰੀਦਦਾ ਸਾਂ। ਤੇਰੀ ਮਾਂ ਹਰ ਇੱਕ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵੱਿਚ ਰੰਗਾਂ ਨਾਲ ਭਰੀਆਂ ਪਾਣੀ ਦੀਆਂ ਪਚਿਕਾਰੀਅਾਂ ਦੇਖ ਕੇ ਬਹੁਤ ਖੁਸ਼ ਹੁੰਦੀ ਸੀ। ਮੈਂ ਉਹ ਦਿਨ ਨੂੰ ਮੁੜ ਦੁਹਰਾਉਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ, ਪਤਾ ਨਹੀਂ, ਯਮਰਾਜ ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਕੋਲ ਕਦੋਂ ਬੁਲਾ ਲਵੇ? “ਬਾਬੂ ਜੀ, ਅਜਹਿਾ ਨਾ ਕਹੋ, ਹੁਣ ਤੁਸੀਂ ਇੱਥੇ ਇਕੱਲੇ ਨਹੀਂ ਰਹੋਗੇ, ਸਾਡੇ ਨਾਲ ਇੰਦੌਰ ਆ ਜਾਓ, ਉੱਥੇ ਅਸੀਂ ਸਾਰੇ ਇਕੱਠੇ ਰਹਾਂਗੇ।” ਉਦਯੋਗਪਤੀ ਦੀਆਂ ਇਹ ਗੱਲਾਂ ਸੁਣ ਕੇ ਬਾਬੂ ਜੀ ਬਹੁਤ ਖੁਸ਼ ਹੋ ਗਏ। ਹੋਲਿਕਾ ਦਹਿਨ ਦੀਆਂ ਤਿਆਰੀਆਂ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਮਾਧੁਰੀ ਨੇ ਭੰਗ ਨਾਲ ਭਰੇ ਗਲਾਸ ਵੀ ਸਜਾ ਕੇ ਰੱਖ ਦਿੱਤੇ। ਬਚਪਨ ਵਾਂਗ ਹੀ ਸਾਰੇ ਰੰਗਾਂ ਨਾਲ ਭਰ। ਲਕਸ਼ਮੀ ਨੂੰ ਘਰ ਦਾ ਸਾਰਾ ਕੰਮ ਕਰਦੀ ਦੇਖ ਕੇ ਬਾਬੂ ਜੀ ਨੇ ਛਲਕਦੀਅਾਂ ਅੱਖਾਂ ਨਾਲ ਕਿਹਾ “ਧੀ ਤਾਂ ਧੀ ਹੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ…।” ਅੱਜ ਮੇਰੀਆਂ ਦੋ ਧੀਆਂ ਤੇ ਚਾਰ ਪੁੱਤਰ ਹਨ। ਪਿਤਾ ਦੇ ਚਿਹਰੇ ‘ਤੇ ਖੁਸ਼ੀ ਦੇਖ ਕੇ ਸਾਰੇ ਮੁਸਕਰਾ ਕੇ ਉੱਚੀ-ਉੱਚੀ ਬੋਲੇ - “ਬੁਰਾ ਨਾ ਮੰਨਿਓ, ਹੋਲੀ ਹੈ…।” |
*’ਲਿਖਾਰੀ’ ਵਿਚ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਹੋਣ ਵਾਲੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਹੀ ਰਚਨਾਵਾਂ ਵਿਚ ਪ੍ਰਗਟਾਏ ਵਿਚਾਰਾਂ ਨਾਲ ‘ਲਿਖਾਰੀ’ ਦਾ ਸਹਿਮਤ ਹੋਣਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਨਹੀਂ। ਹਰ ਲਿਖਤ ਵਿਚ ਪ੍ਰਗਟਾਏ ਵਿਚਾਰਾਂ ਦਾ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰ ਕੇਵਲ ‘ਰਚਨਾ’ ਦਾ ਕਰਤਾ ਹੋਵੇਗਾ। |
ਡੌਲੀ ਸ਼ਾਹ,
ਨੇੜੇ ਪੀਐਚਈ,
ਡਾਕਖਾਨਾ ਸੁਲਤਾਨੀ ਛੋਰਾ,
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